बिहार विधानसभा चुनावों के नतीजों के बाद अब BJP का पूरा ध्यान पश्चिम बंगाल में अगले साल अप्रैल-मई में होने वाले चुनावों पर है। ममता अपने ठोस अल्पसंख्यक वोट बैंक के समर्थन से लगभग दस साल से सत्ता में हैं। लेकिन इस बार असदुद्दीन ओवैसी के नेतृत्व वाली ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन (AIMIM) के भी बंगाल चुनावों में उतरने के ऐलान से तमाम समीकरण गड़बड़ाते नजर आ रहे हैं।
अब राजनीतिक हलकों में सवाल उठने लगा है कि क्या ओवैसी ममता के वोट बैंक में सेंध लगा कर उनका खेल बिगाड़ेंगे, क्या इससे BJP को सत्ता हासिल करने में मदद मिलेगी। हालांकि तृणमूल कांग्रेस, कांग्रेस और सीपीएम ने ओवैसी के चुनाव मैदान में उतरने को खास तवज्जो नहीं दी है।
दूसरी ओर, BJP ने भी कहा है कि उसे बंगाल की सत्ता हासिल करने के लिए AIMIM या किसी और की सहायता की जरूरत नहीं है। लेकिन अंदरखाने तमाम दल ओवैसी की ओर से मिलने वाली चुनौतियों की काट के लिए रणनीति बनाने में जुट गए हैं।
बिहार के चुनावी नतीजों के बाद ओवैसी ने BJP को हराने के लिए ममता को चुनाव पूर्व गठजोड़ का भी प्रस्ताव दिया था। लेकिन ममता और उनकी तृणमूल कांग्रेस ने इसे खारिज कर दिया है। इससे पहले ममता बनर्जी ओवैसी पर बीजेपी से पैसे लेकर बंगाल में पांव जमाने के आरोप भी लगा चुकी हैं।
बिहार चुनावों में वैसे तो बीजेपी के साथ ही सीपीआई (एम-एल) का प्रदर्शन भी बढ़िया रहा है। लेकिन दिलचस्प बात यह है कि बंगाल चुनावों से पहले यहां सबसे ज्यादा चर्चा हो रही है बिहार के सीमांचल इलाके में महज पांच सीटें जीतने वाली ओवैसी की पार्टी की।
दरअसल, हाल के वर्षों में BJP के मजबूत होने के साथ बंगाल में जिस तेजी से धार्मिंक आधार पर धुव्रीकरण तेज हुआ है, उसमें ओवैसी की मौजूदगी खास कर सत्तारुढ़ पार्टी के समीकरणों को बिगाड़ने करने में सक्षम है।ओवैसी की पार्टी इन चुनावों में कितना असर डाल पाएगी, लाख टके के इस सवाल का जवाब तो बाद में मिलेगा। लेकिन राज्य के जातिगत समीकरणों को ध्यान में रखते हुए उसका मैदान में उतरना काफी अहम है।
2011 की जनगणना के मुताबिक, पश्चिम बंगाल की कुल आबादी में 27.01 फीसदी मुस्लिम थे। अब यह आंकड़ा 30 फीसदी के करीब पहुंच गया है। बांग्लादेश सीमा से लगे राज्य के जिलों में मुस्लिमों आबादी बहुतायत में है। मुर्शिदाबाद, मालदा और उत्तर दिनाजपुर में तो इस तबके के लोगों की आबादी कुल आबादी की आधी या उससे ज्यादा है। इनके अलावा दक्षिण और उत्तर 24-परगना जिलों में भी इनका खासा असर है। विधानसभा की 294 सीटों में से 100 से 110 सीटों पर इसी तबके के वोट निर्णायक हैं।
2006 तक राज्य का मुस्लिम वोट बैंक पर वाम मोर्चा का कब्जा था। लेकिन उसके बाद यह लोग धीरे-धीरे ममता की तृणमूल कांग्रेस के प्रति आकर्षित हुए और 2011 और 2016 में इसी वोट बैंक की बदौलत ममता सत्ता में बनी रहीं। लेकिन बीजेपी की ओर से मिलती मजबूत चुनौती के बीच अब ओवैसी के यहां चुनावी राजनीति में उतरने की वजह से ममता बनर्जी सरकार के लिए नया सिरदर्द पैदा होने का अंदेशा है।
हालांकि सत्ता में रहने के दौरान ममता लगातार अल्पसंख्यकों की सहायता के लिए दर्जनों योजनाएं शुरू कर चुकी हैं। इनमें अल्पसंख्यकों के मदरसों को सरकारी सहायता, इस तबके के छात्रों के लिए स्कॉलरशिप और मौलवियों को आर्थिक मदद भी शामिल है। इसी वजह से बीजेपी समेत तमाम राजनीतिक दल उनके खिलाफ तुष्टिकरण की राजनीति के आरोप लगाते रहे हैं।
राज्य के मुस्लिम नेताओं का कहना है कि AIMIM के यहां चुनाव लड़ने से समीकरणों में बदलाव होने की संभावना है। 'मिशन पश्चिम बंगाल' के लिए AIMIM राष्ट्रीय प्रवक्ता असीम वकार कहते हैं कि पार्टी ने राज्य में 23 जिलों में से 22 में अपनी यूनिट बनाई हैं। फिलहाल एक सर्वेक्षण किया जा रहा है। उसके बाद ही तय किया जाएगा कि पार्टी कितनी सीटों पर चुनाव लड़ेगी।
वैसे, हाल के दिनों में अल्पसंख्यकों के एक तबके में तृणमूल कांग्रेस के प्रति नाराजगी बढ़ी है। ऐसे में ओवैसी की मौजूदगी ऐसे लोगों को एक नया विकल्प मुहैया करा सकती है। दूसरी ओर, तृणमूल कांग्रेस ने ओवैसी और उनकी पार्टी पर हमले तेज कर दिए हैं।
पार्टी के प्रवक्ता सांसद सौगत राय कहते हैं, अब AIMIMका असली चेहरा अल्पसंख्यकों के सामने आ गया है। बिहार में ओवैसी की पार्टी ने अल्पसंख्यक वोटों में सेंध लगा कर बीजेपी को सत्ता हासिल करने में मदद की है। लेकिन बिहार और बंगाल के मुसलमानों में काफी फर्क है। ओवैसी को यहां वैसी कामयाबी नहीं मिलेगी। राय दावा करते हैं कि ओवैसी का असर हिंदी और उर्दूभाषी मुसलमानों पर तो कुछ असर है। लेकिन बांग्ला भाषियों पर उनका कोई असर नहीं होगा।
शहरी विकास मंत्री फिरहाद हकीम AIMIM को एक सांप्रदायिक ताकत करार देते हुए कहते हैं। बीजेपी ने उसे वोटकटवा पार्टी के तौर पर बंगाल के चुनाव मैदान में उतरने के लिए मनाया है। यह पार्टी भी बीजेपी की तरह विभाजन की राजनीति के भरोसे आगे बढ़ रही हैं। राज्य सरकार में मंत्री और जमीयत उलेमा-ए-हिंद के अध्यक्ष सिद्दीकुला चौधरी दावा करते हैं कि बंगाल के मुसलमान राजनीति तौर पर काफी सचेत और परिपक्व हैं। वे किसी बाहरी पार्टी और बीजेपी की बी टीम का समर्थन नहीं करेंगे।
बीजेपी की चुनावी जीत के लिए मुस्लिम वोटों का विभाजन काफी अहम है। लेकिन पार्टी के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष मुकुल राय कहते हैं,'हमें बंगाल में जीतने के लिए किसी बी या सी टीम की जरूरत नहीं है। पार्टी अपने बूते यहां दौ सौ से ज्यादा सीटें जीतेगी।
बीजेपी के प्रदेश अल्पसंख्यक मोर्चा अध्यक्ष अली हुसैन भी दावा करते हैं, हमें अल्पसंख्यक वोट बैंक में सेंध लगाने के लिए ओवैसी की पार्टी की जरूरत नहीं है। बीते लोकसभा चुनाव के नतीजों से साफ है कि बंगाल में अब इस तबके के वोट भी बीजेपी को मिल रहे हैं। अगले साल के विधानसभा चुनावो में भी पार्टी को पांच से दस फीसदी मुस्लिम वोट मिलेंगे।
सीपीएम के वरिष्ठ नेता मोहम्मद सलीम कहते हैं, 'अगर बीजेपी और मीडिया ओवैसी को बढ़ावा नहीं दें तो उनकी पार्टी बंगाल की राजनीति में कोई छाप नहीं छोड़ सकेगी। प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष अधीर रंजन चौधरी तो पहले ही AIMIM को बीजेपी की बी-टीम बता चुके हैं। वह कहते हैं कि ओवैसी की पार्टी का एकमात्र लक्ष्य मुस्लिम वोटों का विभाजन कर धर्मनिरपेक्ष राजनीतिक दलों को नुकसान पहुंचाना है। इसका फायदा बीजेपी को ही मिलेगा।
ऑल बंगाल माइनॉरिटी यूथ फेडरेशन के महासचिव मोहम्मद कमरुज्जमां कहते हैं, 'लंबे अरसे से तृणमूल कांग्रेस का समर्थन करने वाले मुसलमानों का अब उससे मोहभंग हो रहा है। उनका दावा है कि बंगाली मुसलमानों में भी ओवैसी का खासा असर है। ओवैसी ने कभी बीजेपी के साथ किसी तरह का समझौता नहीं किया है। दिलचस्प बात यह है कि कमरुज्जमां ने 2019 के लोकसभा चुनावों में मुस्लिम तबके से तृणमूल को वोट देने की अपील की थी।
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