पलायन शहर की ओर होता था। कोरोना ने इसे गांव की ओर मोड़ दिया है। दरअसल पलायन की ये कहानियां उन हजारों लोगों की जिंदगी का दस्तावेज हैं, जो रोटी, रोजगार और तरक्की की तलाश में शहर आए थे। सालों बिता देने के बाद भी इनके पास इन तीनों में से कुछ भी नहीं बचा है। सारी कमाई शहर में ही गंवाकर खाली हाथ गांवों को लौट रहे हैं। लेकिन गांव में भी क्या है, शहर तो लौटना ही होगा। पढ़िए 3 कहानियां, जो आपको झकझोर देंगी...
राजकुमार खुद भी पढ़ाई में तेज थे, पर जिम्मेदारियां उठानी थीं, सो छोटे भाई को मास्टर बनाने का सपना देखा। दूसरी बार लॉकडाउन में बेबस होकर गांव वापस जा रहे हैं।
राजकुमार खुद भी पढ़ाई में तेज थे, पर जिम्मेदारियां उठानी थीं, सो छोटे भाई को मास्टर बनाने का सपना देखा। दूसरी बार लॉकडाउन में बेबस होकर गांव वापस जा रहे हैं।
‘सोचा था भाई को मजदूर नहीं बनाऊंगा, पढ़ाऊंगा। पिछली बार लॉकडाउन हुआ तो सोचा एक साल खराब हुआ तो हुआ, हिम्मत कर हम दोबारा दिल्ली आ गए। पर अब जा रहे हैं, दोबारा नहीं लौटेंगे। शायद छिद्दन (छोटा भाई) की किस्मत में मजदूरी ही लिखी है।'
पिछली बार करीब 1500 किलोमीटर दूरी का सफर तकरीबन पैदल तय करने के बाद राजकुमार ने मन बना लिया था कि वे अब कभी दिल्ली नहीं आएंगे। लेकिन भाई को मास्टर बनाने की ख्वाहिश जख्मों पर मरहम बनी। लॉकडाउन के बाद छह महीने घर में गुजारकर फिर सितंबर में दिल्ली रवाना हो गए। दिल्ली के मंगोलपुरी की एक फैक्ट्री में सिलाई करने के साथ ही वे घर पर भी निजी तौर पर सिलाई करते थे।
राजकुमार अपनी कहानी कुछ यूं बयां करते हैं... हम छह भाई-बहन हैं। दो एकड़ जमीन थी। लेकिन चार बहनों की शादी में सब बेच दिया। छिद्दन से आप मिलेंगी तो वह बिल्कुल राजा बाबू लगता है। सब भाई-बहनों में छोटा। पढ़ने में होशियार।
मैं 8वीं तक पढ़ा हूं। मैं भी पढ़ने में कोई कोई गदहा नहीं था। पर पापा को टीबी हो गया तो बड़ा भाई होने के नाते मुझे घर संभालना पड़ा। दो बहनें मुझसे बड़ी थीं, दो छोटी। उनकी शादी की। छिद्दन बोला कि भइया हम भी कुछ काम धंधा कर लें। हमने कहा, पापा को टीबी है, हमें नहीं। चुपचाप पढ़ाई में लगे रहो।
छिद्दन ने 2019 में 12वीं पास किया और 70 परसेंट नंबर लाया। हम सोच लिए कि चाहे कुछौ हो जाए हम छिद्दन को पढ़ाएंगे। छिद्दन मास्टर बनेगा, मजदूर नहीं। क्या पता, घर की किस्मत छिद्दन बदल दे। 2017 में दिल्ली आए थे। हम यहां सिलाई में 12 हजार रु. कमाते थे। साथ में घर पर भी सिलाई का काम करते थे। दिन में 16 घंटे काम करते थे। घर को पूरा 12 हजार रु. भेज देते थे। अम्मा का खर्चा और पटना में रहकर छिद्दन की पढ़ाई का खर्चा पूरा हो जाता।
लेकिन पिछली बार लॉकडाउन लगा तो यहां मालिक ने काम बंद कर दिया। मकान मालिक ने घर से जाने को कह दिया। चार दिन यहां-वहां गुजारे। फिर पैदल ही चल दिए। 15 दिन उठ नहीं पाए थे। बुखार से तप गए थे। छिद्दन भी घर पहुंच गया था। उसने कहा, भइया अब हम भी कुछ काम-काज कर लेंगे। मैंने भी कुछ नहीं कहा।
मन बना लिया था कि अब दिल्ली की सीलन भरी, अंधेरी गली में जीवन नहीं काटेंगे। अपने गांव में रहेंगे। प्रधान के पास पहुंचे कि कुछ मनरेगा का मिल जाए तो कर लेंगे। पर 6 महीने में दो हजार का काम भी नहीं मिला। छिद्दन गांव में ही खेतिहर मजदूर बन गया। जब उसे खेत में काम करते देखते तो मन कचोट जाता। फिर मन कड़ा किए और दोबारा दिल्ली आ गए। लेकिन फिर लॉकडाउन, अब हिम्मत नहीं है पैदल चलने की। इसलिए निकल रहे हैं। बस दुख रहेगा कि छिद्दन भी अब मजदूर बनेगा, मास्टर नहीं।
बस में चढ़ते हुए राजकुमार ने कहा- अच्छा मैडम नमस्ते। मैंने आवाज लगाकर पूछा गांव का नाम तो बता दो, अपना सामान चढ़ाते हुए राजकुमार ने कहा, जिला खगड़िया, गांव दहवा-खैरी।
दिल्ली छोड़कर जा रहे बाबूलाल कुछ नहीं बोले, उनकी पत्नी संतोषी ने हमसे बात की। कहने लगीं- भूखों मर जाएं, पर दिल्ली नहीं आएंगे।
दिल्ली छोड़कर जा रहे बाबूलाल कुछ नहीं बोले, उनकी पत्नी संतोषी ने हमसे बात की। कहने लगीं- भूखों मर जाएं, पर दिल्ली नहीं आएंगे।
‘पिछली बार भी ट्रेन में जैसे-तैसे लदकर गांव पहुंचे थे। तब सात साल और तीन साल का बेटा और एक आठ साल की बेटी साथ थी। इस बार तीन साल का बेटा साथ नहीं है।' तकरीबन 45 साल के बाबूराव के चेहरे पर गुस्सा और झल्लाहट साफ नजर आ रही थी। मेरे सवालों से आग बबूला हुए बाबूराव कहते हैं, ‘आप तो इन तस्वीरों से पैसा कमाएंगी, नाम होगा आपका। पर हमारा कुछ नहीं होगा। मजदूर की किस्मत में केवल भूख और भटकना है।'
दरअसल, बाबूराव का गुस्सा जायज है, उनकी पत्नी संतोषी ने मुझसे कहा, ‘हमारी रोजी-रोटी फिर छिन गई। बड़ी मुश्किल से पिछले लॉकडाउन का घाव भरा था। अब फिर दोबारा लॉकडाउन से बौखला गए हैं। पिछले लॉकडाउन में गर्मी में ठसाठस भरी ट्रेन में हम गए थे। पानी तक नहीं था। हमारे 3 साल के बच्चे को गांव जाने के बाद पहले ताप चढ़ा, खूब उल्टियां हुईं और फिर चौथे दिन मौत हो गई। बाबूराव उत्तर प्रदेश के कासगंज के रहने वाले हैं। बाबूराव ने बात करने से साफ मना कर दिया। लेकिन उनकी पत्नी ने पिछले लॉकडाउन में मिले जख्म को हमारे सामने खोलकर रख दिया।
ये है संतोषी की कहानी... पिछले लॉकडाउन में हम गांव पहुंचे तो प्रधान ने हमें स्कूल में 14 दिन रखा। कहा, सीधा घर नहीं जा सकते। उधर, बच्चे की हालत खराब हो रही थी। गांव वालों ने दवाई का इंतजाम किया। लेकिन शायद ताप बहुत चढ़ गया था। उल्टियां रुक ही नहीं रही थीं। चौथे दिन हमारा बच्चा नहीं रहा। लॉकडाउन ने हमसे हमारा बच्चा छीन लिया।
बाबूराव की तरफ इशारा करते हुए संतोषी ने कहा कि ये तो अब आना ही नहीं चाहते थे। लेकिन गांव में करते भी क्या? मैं जबरदस्ती इन्हें दिल्ली ले आई। सोचा कम से कम बच्चे तो ठीक से पलेंगे। यहां ये घरों में पेंटिंग का काम करते हैं। पिछली बार हमें लगा था कि कुछ महीनों की बात है, फिर सब ठीक हो जाएगा।
हमारी सारी बचत गांव में छह महीने गुजारने में खर्च हो गई। हम दोनों ने गांव में मनरेगा का काम किया, लेकिन फिर वह भी कुछेक महीने ही मिला। खेती तो है नहीं। सोचा जैसे यहां मजूरी करनी है, वैसे शहर में करें। और हर बार लॉकडाउन थोड़े न लग जाएगा। बच्चे की मौत का गम भुलाकर अपने और दो बच्चों की जिंदगी बनाने के लिए हम दोबारा दिल्ली आ गए। और अब फिर... अब हम कभी दिल्ली नहीं आएंगे। चाहे, गांव में भूखों ही क्यों न मर जाएं!
बाबूराव सब चुपचाप सुन रहे थे। उन्होंने बस को हाथ देते हुए कहा, ‘मैडम आप लग तो दिल्ली वाले रहे हो, दिल्ली में परधानमंत्री भी रहते हैं। आपकी पहुंच तो होगी। उनसे कहना कि हमने भी उन्हें वोट दिया था, सोचा था कि वे चाय वाले हैं। हम गरीबों का दर्द समझेंगे। हमारे लिए रोजगार की व्यवस्था करेंगे। पर वो तो अब अमीर हो गए हैं। शायद गरीबी अब उन्हें याद नहीं।'
सलीम दिल्ली का सबसे मशहूर मैकेनिक बनने का सपना लेकर आए थे। ये भी चाहते थे कि बेगम को दिल्ली की सैर कराएं, पर लॉकडाउन लग गया। सलीम वापस आएंगे, क्योंकि हार नहीं मानी है।
सलीम दिल्ली का सबसे मशहूर मैकेनिक बनने का सपना लेकर आए थे। ये भी चाहते थे कि बेगम को दिल्ली की सैर कराएं, पर लॉकडाउन लग गया। सलीम वापस आएंगे, क्योंकि हार नहीं मानी है।
25-26 साल के सलीम की शादी पिछले साल मई में लॉकडाउन में ही हुई थी। साहिबा ने बहुत समझाया था कि दिल्ली मत जाओ, यहीं मिलकर कुछ काम कर लेंगे। लेकिन सलीम तो दिल्ली में तरक्की का सपना लेकर आए थे। सलीम को जैसे-तैसे जिंदगी नहीं जीनी थी, उसे मोटर मैकेनिक बनना था और पैसा कमाकर साहिबा को दिल्ली लाना था। सलीम ने अपनी कहानी बिंदास होकर सुनाई और यह भी कहा कि लॉकडाउन खत्म हो जाएगा तो हम फिर आएंगे। मालिक ने कहा है, अभी हालात ठीक नहीं, जैसे ही ठीक होंगे मैं बुला लूंगा।
सलीम की कहानी कुछ ऐसी है... मैं छह महीने पहले ही दिल्ली दोबारा आया। मेरे बहुत सारे दोस्त यहां रहते हैं। उन्होंने कहा कि आ जाओ मिलकर रहेंगे और पैसा कमाकर साथ ही बिजनेस करेंगे। हमने छह महीनों में अच्छा-खासा कमाया। अपने गांव का मैं सबसे बढ़िया मैकेनिक हूं। टू व्हीलर तो मैं देखकर समझ जाता हूं कि इसे मर्ज क्या है? और इसका इलाज क्या है? फोर व्हीलर में हाथ तंग था। लेकिन यहां आकर मैंने अपना हाथ इस पर भी सेट कर लिया है।
मोतिहारी जिले के बारिया गांव के रहने वाले सलीम दिल्ली में त्रिलोकपुरी में रहते थे। लेकिन लॉकडाउन की खबर मिलते ही मालिक ने उन्हें घर जाने के लिए कह दिया। सलीम रेलवे स्टेशन के बाहर अकेले नहीं थे, बल्कि तीन और दोस्त थे।
बेहद जिंदादिल और हौसले से भरे सलीम कहते हैं- देखिए यह तो महामारी है, पूरी दुनिया ही परेशान है तो फिर हम कैसे बचेंगे। इसलिए ऐसे हालात में घर ही जाना ठीक है। फिर अगर पिछली बार की तरह हालात हो गए तो मुश्किल हो जाएगी। अभी तो कम से कम हम पैसा देकर ट्रेन से घर तो पहुंच जाएंगे।
उनसे यह पूछने पर कि आखिर दिल्ली आने का उनका सबसे पहला मकसद क्या है? वे कहते हैं, दिल्ली का सबसे मशहूर मैकेनिक बनना और फिर अपनी बेगम को दिल्ली की सैर कराना। सलीम कहते हैं कि दोबारा आकर काम शुरू करना मुश्किल तो होगा। मालिक तो अच्छा है। पर सारी बचत अब खर्च हो जाएगी।
मैंने पूछा कि अपने गांव में या फिर वहीं शहर में भी तो मैकेनिक बन सकते थे? हां बन सकते थे, लेकिन वहां पैसा नहीं है। और लोगों के पास इतनी गाड़ियां भी कहां हैं। सलीम कहते हैं, जहां बिजनेस होता है, वहीं लोग अमीर होते हैं। और जहां अमीर लोग होते हैं वहीं कारें होती हैं। तो अगर जहां कारें होंगी वहीं तो मैकेनिक की कमाई भी होगी। सरकार ने मोतिहारी में बिजनेस तो लगाए नहीं। वैसे अगर मोतिहारी में बिजनेस होता तो मैं फिर यहां नहीं आता। फिर कहने लगे- अच्छा मैम, हम चलते हैं... ट्रेन का इंतजार भी करना है।
सलीम दूसरे मजदूरों की तरह लॉकडाउन को लेकर बहुत निराश तो नहीं थे, लेकिन उनकी इस बात में दम था कि अगर मोतिहारी में बिजनेस होता तो वे दिल्ली नहीं आते। और शायद फिर गांव से शहरों की तरफ रोजी-रोटी की तलाश में मजदूर नहीं आते और फिर लॉकडाउन में पलायन की दर्द भरी कहानियां भी नहीं बनतीं। और गांव वीरान नहीं होते और शहरों में अंधेरी तंग गलियों वाली वह झुग्गियां भी नहीं होतीं जहां सूरज की रोशनी गली के छोर तक पहुंचते-पहुंचते अपना दम तोड़ देती है।
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